Saturday 18 January 2020

सोच कर कि महफूज़ हूँ


बाहर थी भगदड़ मची, मैं घर मे रहा, सोच कर कि यहीं तो महफूज़ हूँ
औरों के घर उजड़े तो दुख हुआ मुझे, पर मैं घर में रहा, सोच कर कि यहीं महफूज़ हूँ
मैं चुप रहा कभी जाने में कभी अंजाने में, सोच कर कि यूँही महफूज़ हूँ
मेरे सामने बिछड़े अपनो से अपने, मैं थोड़ा घबराया पर चुप रहा सोच कर कि यहीं महफूज़ हूँ
फिर एक दिन वही आग वही दर्द मेरे आँगन में था,
उसकी दस्तक से हर बीता लम्हा किताब के पन्नो की तरहा मेरी नज़रों के सामने पलट रहा था, जब जब मैं चुप था
और फिर मैं दरवाज़ा खोल कर चुप ही खड़ा रहा, सोच कर कि अब कहाँ ही महफूज़ हूँ