Monday 3 April 2017

दौर

ये खामोशियों के शोर है,ये मदहोशियों के दौर है   
ये वक़्त कुछ नासमझ तो दिल भी थोडा चोर है
ज़हन मे कुछ चल रहा लबों पे कुछ और है
ये बचपने को तोड़ कर परिपक्वता का शोर है
कभी हँसी कभी नमी कभी ये मुख मौन है
मुझमे ये जो नया कोई बन रहा ये कौन है
ये वक़्त का ही हेर है या ख्यालों का ये फेर है
ज़हन मे उठते सवालों का इस दिल मे एक घेर है
सवालों के हैं बढ़ते सिलसिले पर जवाबों मे अभी देर है
समझ सके ना उलझनों को समझ का मेरी फेर है........