मुझे रोज़ बताया जाता है मुझे रोज़ समझाया जाता है कि मैं ख़तरे में हूँ
नहीं नहीं मुझे ख़तरा बेरोज़गारी से नही है, मुझे ख़तरा उसके विरुद्ध आंदोलन करते छात्रों से है
जो कथित रूप से भटक गये हैं
और मुझे ख़तरा लोकतांत्रिक देश में बिना विचार विमर्श के संसद में पास होते एक के बाद एक बिलों से भी नहीं है,
मुझे ख़तरा उनमे से एक बिल के विरुद्ध आंदोलन करते उन किसानो से है जो कथित रूप से आतंकवादी या खालिस्तानी हो गये हैं
मुझे ख़तरा मेरे धर्म के ठेकेदारों द्वारा मेरे धर्मस्थलों की गरिमा धूमिल करने से भी नहीं है, मुझे ख़तरा मेरे बच्चे के स्कूल मे पथराव करते, उन्हे आतंकित करती भीड़ से भी नहीं है, मुझे ख़तरा उन लोगों से है जो कथित रूप से उस स्कूल मे धर्मपरिवर्तन को अंजाम दे रहे थे,
मुझे ख़तरा कोरोना मे बिना दवा बिना ऑक्सिजन के मरते लोगों से हुई त्राहि से भी नहीं है, मुझे ख़तरा धरना देते उन डॉक्टरों से है जिनके लिए कभी हमने तालियाँ बजाई थी पर अब जो कथित रूप से भटक गये हैं
मुझे ख़तरा बढ़ती महँगाई के दौर मे रोते लोगों के बीच आलीशान रैलियों पर होते खर्च से भी नहीं है, मुझे ख़तरा है उन लोगों से जो देश हित में होते इन खर्चों पर सवाल उठाते हैं
मुझे ख़तरा मुझसे जुड़े मुद्दों को नज़रअंदाज़ कर, पाकिस्तान और निम्न दर्जे की पत्रकारिता कर रहे बड़े मीडीया से भी नहीं है, मुझे ख़तरा है उन लॅपटॉप और माइक हाथ मे लिए कुछ पत्रकारों से जो कभी कोरोना काल में मजदूर पलायन, कभी पेगासस, कभी मिड डे मील की खामियों को दिखा हमारा मिजाज़ खराब करते हैं
दरअसल वो मुझे बताना चाहते हैं कि मुझे ख़तरा हर उस इंसान से, हर उस संस्था से है जो मेरे जनता होने के हक़ की वकालत करता है, जो मुझे बताता है कि मैं देश प्रेमी होते हुए अपने देश मे ग़लत हो रहे मुद्दों को उठा सकती हूँ, कि मैं अपने सांविधानिक हक़ों को जी सकती हूँ